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मार्कण्डेय त्रिपाठी की पंक्ति “पुरुषोत्तम मास”

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पुरुषोत्तम मास

चल रहा मलमास,सावन दो महीने का हुआ है ।
मगन हैं प्रभु भक्त,साधन प्राप्त,जीने का हुआ है ।।

हो रहे हैं कथा प्रवचन, पंडितों की भीड़ छाई ।
है नहीं फुर्सत दिवस निशि,चाभते घी की मिठाई ।।

उन्हें बी, पी, और सूगर की, कहां रहती है चिन्ता ।
मुफ्त में वे ज़हर खाकर, आजकल रहते हैं जिन्दा ।।

रुक गई हैं शादियां, नवपीढ़ियां व्याकुल हुई हैं ।
व्यस्त हैं मोबाईलें, बेसब्रियां नभ को छुई हैं ।।

अब नहीं आती हैं अपने मायके, नवविवाहिताएं ।
सहेलियों से अब भला कैसे कहें, पतिसुख कलाएं ।।

अब नहीं पड़ते हैं झूले, लुप्त है चहुंओर कजरी ।
कर्णप्रिय गीतें न होतीं,रुदन करती आज़ बदरी ।।

मिट गईं हैं आज़, पहले की सभी शुचि मान्यताएं ।
घरों में ताले लगे हैं, सिसकती हैं अब प्रथाएं ।।

आ गया शुभ मास पुरुषोत्तम, होती विष्णू की पूजा ।
सोच है अब आधुनिक, व्यापार स्वर चहुंओर गूंजा ।।

भक्तिमय फोटो खिंचाकर,वायरल करते हैं जन अब ।
सार्वजनिक करते उसे हैं,जो कभी था व्यक्तिगत सब ।।

हो रही है देर से, खेतों में धानों की रोपाई ।
बादलों ने देर कर दी, फिर भी उसको है बधाई ।।

विविध चैनल कर रहे, खेतों से ही सीधे प्रसारण ।
बन गया बाजार सब कुछ,बिक रहा जीवन का हर क्षण ।।

लग रहा कैसा है, जब वे बिलखने वाले से पूछें ।
तरस आती अक्ल पर,हर शब्द उनके,उर को चूभें ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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