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मार्कण्डेय त्रिपाठी की पंक्ति “कठिन गांव जाना”

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कठिन गांव जाना

बहुत है कठिन, गांव जाना तपन में,
न मिलता टिकट, लगती दूनी दलाली ।
अजा, भेड़ सम हो गई जिंदगी है,
परेशान हैं लोग, देते हैं गाली ।।

बना थर्ड ए,सी, भी स्लीपर है अब तो,
है हालत बुरी, भीड़ रहती है भारी ।
पड़ीं शादियां गांव में आजकल हैं,
करें क्या,विवश जन, गई बुद्धि सारी ।।

नहीं आज़ संभव सभी के लिए यह,
करें सकुशल भ्रात, यात्रा हवाई ।
है महंगी बहुत,जेब ठंडी है सच में,
खतम हो न जाए,इसी में कमाई ।।

परेशान है मध्यमवर्ग छुट्टियों में,
सभी चाहते साल में गांव जाना ।
स्नेहीजन वहां राह निशि दिन निहारें,
न चलता है उनसे कोई भी बहाना ।।

बढ़ीं गाड़ियां, दौड़तीं रात दिन हैं,
मगर भीड़ लोगों की, कमतर न होती ।
आबादी में पहुंचा प्रथम आज़ भारत,
कहां तक भला ट्रेन लोगों को ढोती ।।

मार्कण्डेय त्रिपाठी ।

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