राजनैतिक परिवेश
दुखी मन बहुत, राजनैतिक दशा से,
खुलेआम देते हैं जन आज़ गाली ।
न तो कोई लज्जा,न संस्कार है अब,
बहुत बेशरम हैं, बजाते हैं ताली ।।
न तो लोकतांत्रिक व्यवस्था सफल अब,
न तो मूल्य केन्द्रित, कहीं आचरण है ।
किसे दोष दें हम, सभी एक सम हैं,
हमारे लिए तो,यह सच में मरण है ।।
वकीलों के सम,लोग आपस में लड़ते,
मगर चाय पीते, सभी साथ मिलकर ।
ठगी जाती जनता,न पहचान इनकी,
चुनावों के पश्चात, चलते हैं तनकर ।।
हुई आज कुर्सी ही विचारधारा ,
निरर्थक ही टी, वी, पर होती बहस है ।
बनाते हमें मूर्ख,सच वे निरंतर ,
बहाना है हाथों में, गीता,कलश है ।।
करोड़ों के बंगले, गाड़ी , नौकर-चाकर,
ये आते कहां से, कृपा कर बताएं ।
हैं बगुला भगत ये, सफल हैं शिकारी,
मगर खुद को निर्दोष ही नित जताएं ।।
मार्कण्डेय त्रिपाठी ।